Saturday, October 9, 2010


प्रिय मित्रों!
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Saturday, January 3, 2009

ग़ज़ल

झूठ ही क्या मिलें गले बैर जब नस-नस में हो
तीर आख़िर तीर है, सीने में हो तरकश में हो

कितना ही बदल जायेगा पर घास तो न खायेगा
शेर आख़िर शेर है, जंगल में हो, सर्कस में हो

जली चिता तो रोम-रोम कह ‘इंक़लाब’ फटने लगा
ख़ामोश न रह पायेगा, बारूद जो नस-नस में हो

सोच कर आए हैं हम सच बात कह कर जाएंगे
रोक ले सारा ज़माना, जो किसी के बस में हो

-विवेक मिश्रा (इस ग़ज़ल का अंग्रेज़ी रूपांतरण पढने के लिये 'रूपांतरण' पर क्लिक करें)

ग़ज़ल

अश्क़ आ जाते हैं आँखों में शाम ढलती है
याद आती है तेरी जैसे ही शमा जलती है

दिल में रहती है तेरी याद और ख़याल तेरा
न चैन आता है न आह ही निकलती है

बांधे रहता हूँ कलाई में मुहब्बत की घड़ी
वक़्त यादों की हरारत से वो बदलती है

जो है प्यार का मारा, उसे मरा न कहो
कोई देखे तो सही नब्ज़ मेरी चलती है

तू अगर साथ नहीं तो तेरी याद सनम
शाम होते ही मेरे लॉन में टहलती है

-विवेक मिश्रा (इस ग़ज़ल का अंग्रेज़ी रूपांतरण पढने के लिये 'रूपांतरण' पर क्लिक करें)

ग़ज़ल

ज़ात, मज़हब, मुल्क़, सरहद
सब इन्सां की ईजाद हैं

रंग एक सबकी रग़ों में
क्या दुश्मन, क्या एह्बाब हैं

रखें तो फ़लसफ़ा है ज़िन्दगी का
भुला दें तो चन्द अल्फ़ाज़ हैं

न बांधा किन्ही दायरों ने मुझे
दायरों की दुनिया में इफ़रात हैं

-विवेक मिश्रा (इस ग़ज़ल का अंग्रेज़ी रूपांतरण पढने के लिये 'रूपांतरण' पर क्लिक करें)