झूठ ही क्या मिलें गले बैर जब नस-नस में हो
तीर आख़िर तीर है, सीने में हो तरकश में हो
कितना ही बदल जायेगा पर घास तो न खायेगा
शेर आख़िर शेर है, जंगल में हो, सर्कस में हो
जली चिता तो रोम-रोम कह ‘इंक़लाब’ फटने लगा
ख़ामोश न रह पायेगा, बारूद जो नस-नस में हो
सोच कर आए हैं हम सच बात कह कर जाएंगे
रोक ले सारा ज़माना, जो किसी के बस में हो
-विवेक मिश्रा (इस ग़ज़ल का अंग्रेज़ी रूपांतरण पढने के लिये 'रूपांतरण' पर क्लिक करें)
Saturday, January 3, 2009
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खूबसूरत ग़ज़ल, लाजवाब है
ReplyDeleteसाड़ी की साड़ी ग़ज़लें ही अच्छे हैं
स्वागत है आपका
अच्छी ग़ज़ल है,,,,वाह
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